Saturday 19 January 2013

शादी : पारंपरिकता पर हावी आधुनिकता

दिलीप झा की रिपोर्ट
बेलसंड। शादी के अवसर पर दुल्हन के संजने-संवरने की परंपरा पुरानी रही है, लेकिन आधुनिकता के इस दौर में सजावट की आधुनिक तकनीक कुछ ज्यादा हावी हो गई है। हाथों में मेहंदी हो या आंखों में लेंस। बालों का कर्ल और चेहरों पर मेकअप। ब्यूटी पार्लर के जरिए दुल्हन की साज सज्जा का क्रेज बढ़ गया है। भले ही इसके लिए मोटी रकम खर्च करनी पड़ती हो। सीतामढ़ी शहर में दुल्हन की सजावट के लिए तीन हजार से पांच हजार तक पार्लर में लिए जाते है। यह बात दीगर है कि अब दुल्हें भी इस मामले में पीछे नही है। बरात जाने से पहले विभिन्न ब्यूटी पार्लर में जा कर सजनें का क्रेज दुल्हों में खूब बढ़ा है। डोली कहार बिन दुल्हन चली ससुराल
चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रूत आई...। कभी शादी विवाह के अवसर पर बजने वाला यह गीत अब जहां रेडियो-टीवी पर ही सुनने को मिलता है। गीत की प्रासंगिकता इतिहास के पन्नों में कैद हो कर रह गई है। अब न तो डोली दिखता है और नही कहार ही। रामायण काल में मां जानकी की शादी की बात हो या फिर महाभारत काल में। डोली कहार का इतिहास देश की संस्कृति के इतिहास के समान है। भारत में कहार नामक एक खास जाति है, जिनका मुख्य पेशा ही डोली उठाकर कन्या को उसके पिया के घर पहुंचाना रहा है। लेकिन परंपरा पर हावी होती आधुनिकता व लगातार बढ़ रहे पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव डोली प्रथा का बंटाधार कर दिया है। हाईटेक युग में डोली की जगह बेसकीमती कारों ने ले ली है। दुल्हा अब हाथी घोड़ा व पालकी की बजाए बेसकीमती कार पर शादी रचाने जाते हैं। यहां तक की कुछ जगहों पर हेलीकॉप्टर से दुल्हन को लाने में अपने शान लोग समझते हंै। मानिकचौक गांव के निवासी रामप्रवेश कहार की उम्र ७0 वर्ष हो चुकी है, जवानी के दिनों में वे खुद डोली उठाते थे, लेकिन उनकी अगली पीढिय़ां परदेश में मजदूरी करते है। बताते है कि डोली उठाने का प्रचलन बंद हो गया तो बच्चे क्या करते। साल 1960 के बाद से डोली की प्रथा उठने लगी जो अब लगभग समाप्त हो गई है। वहीं मुजफ्फरपुर के कांटी के रहने वाले गोपाल दास भी अपने पूर्वजों के पेशे को जिंदा न रख पाने के लिए अपने आपको कोसते हैं। दब गई शहनाई की गूंज
मांगलिक कार्यों पर गंूजती शहनाई की सुमधुर धुन व सधे हुए हाथों से बजती नौबत आज भी शहनाई के कद्रदानों के कानों में मिश्री सी मिठास घोलती नजर आती है।महज कुछ दशक पहले तक शादी-ब्याह में शहनाई बजती थी। वहीं समय के साथ शहनाई की रस घोलती मिठास बैंड-बाजों के धुन में दब गई। आज इसके कलाकार बेरोजगार होकर दर-दर के ठोकरें खा रहे हैं। इसके साथ ही कुछ कद्रदान इनकी तलाश करते भी हैं तो इनका अता-पता नहीं है।

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