Tuesday 29 January 2013

अनूठे सौंदर्य का प्रतीक है सिक्की कला

बेलसंड। बिहार की सिक्की घास की कला महिला उद्यमिता और हस्तशिल्प के अनूठे सौंदर्य का प्रतीक है। भारी बारिश के बाद पानी में डूबे क्षेत्रों में उपजने वाली सिक्की घास के फूल से निर्मित हस्तशिल्प, घरेलू उपयोग के सामान, डलिया आदि मिथिलांचल क्षेत्र मधुबनी, दरभंगा और सीतामढी और उत्तर बिहार के अन्य कई जिलों में काफी प्रचलित हैं। इस वर्ष गणतंत्र दिवस परेड के अवसर पर दिल्ली में राजपथ की मनोहारी झांकियों में शामिल इस कला ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लिया था। मिथिलांचल क्षेत्र में यह कला कुटीर उद्योग का रूप ले चुकी है। मिथिलांचल की सिक्की कला की जानकार रानी झा बताती हैं कि अपने विशिष्ट सौंदर्य के कारण सिक्की से निर्मित घरेलू उपयोग की डलिया, डोलची और अन्य सजावट के सामान शहरों में भी बड़े घरों में सजावट के सामान के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैं। वह कहती है कि यह मिथिलांचल की गरीबी का सौंदर्य है और लोगों की कठिन परिस्थितियों में रहने वाली जीवनशैली से प्रमुखता से उभर कर निकला है। गरीबी और कठिन परिस्थितियों में कला किस प्रकार जन्म लेती है और पहचान बनाती है सिक्की कला इसका प्रतीक है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सिक्की घास, खर और मूंज घास समाज के गरीब और महिला वर्ग को भी सहारा देते हैं। दलित और गरीब तालाब, दियारा और पोखरों में उपजी घास को काटकर हाट में बेचते हैं। बाद में बनी हुई कलाकृतियां भी बाजार में बिकती हैं और महिलाओं के आय का स्रोत बनती हैं।
रानी के अनुसार मधुबनी के पंडौल प्रखंड के सरहद शाहपुर, सरसो पाही, झंझारपुर के उमरी और रहिका के लहेरियागंज में सिक्की कला के कई कारीगर हैं। हालांकि आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता के प्रचलित सामानों ने सिक्की कला और उसके निर्मित सामानों को पीछे धकेलने का कार्य किया है। लेकिन इस कला को यदि सरकारों की ओर से संरक्षण और बढावा दिया जाए तो यह काफी बेहतर तरीके से फलफूल सकेगी और देश के साथ ही विदेशों में भी लोकप्रिय हो सकती है। सिक्की कला की विशेषज्ञ कहती हैं कि आधुनिक कलाकार समय के अनुरुप सिक्की कला को परिवर्तित कर रहे हैं अब वे फूलदान, पेन स्टैंड, कुशन, पेपरवेट, कान की बाली, अंगूठी और चूडिय़ां आदि भी बनाकर सिक्की की कला के स्वरुप को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। अपने सुनहरे रंग के कारण सिक्की सुनहरी घास :गोल्डेन ग्रास: की कला के रूप में भी जानी जाती है। सिक्की घास के साथ दो अन्य घास मंूज और खर का भी उपयोग होता है। लोहे का बना तकुआ, सुई, छुरी और कैंची की मदद से ही सिक्की के हस्तशिल्प का काम होता है मधुबनी की चित्रकला की तरह ही सिक्की कला की प्रसिद्ध कलाकारों में लहेरियागंज की दौलत देवी, शाहपुर की रेणु देवी, सरसोपाही की मुन्ना खातून तथा सुधा देवी और जौनगढ की नाजो खातून ने मधुबनी क्षेत्र का सिक्की कला में नाम रौशन किया है। समय के साथ सिक्की कला ने विविधता के तौर पर आइने के फ्रेम, टेबल मैट, हाथ पंखा, पौउती :ट्रे:, मौनी, खिलौने आदि स्वरुपों में स्वयं को ढाल लिया है। सिक्की मिथिलांचल में सांस्कृतिक उत्कृष्टता का भी प्रतीक है। मिथिलांचल में जिस घर से बेटी विवाह के बाद मायके से विदा होती है यदि सिक्की कला से बने सामान दिए जाते हैं तो माना जाता है कि उसका घर परिवार सुसंस्कृत और कला के प्रति समर्पित होगा। सिक्की घास को गर्म पानी में उबाल उसे रंगा जाता है तब रंग बिरंगे साजो सामान बनते हैं। इस कारण से यह पर्यावरण के अनुकूल होता है। रानी झा कहती हैं कि सरकार की उदासीनता के कारण इस कला को व्यवस्थित रूप नहीं मिल पाया है। कलाकारों को सही पारिश्रमिक नहीं मिलता है। एक प्रसिद्ध कलाकार मनोहर देवी ने उम्र दराज होने के कारण कला को छोड दिया। कुछ मुस्लिम महिला कलाकारों का भी काफी योगदान रहा है। नाजो खातून देवी काली और भगवान शिव की मूर्ति बनाने में महारत हासिल कर चुकी हैं। शहरों में कला के अच्छे कद्रदान रहने के कारण कलाकारों की बनाई गई वस्तुएं 500 से 1000 रुपए तक में बिक जाती हैं लेकिन ग्रामीण अंचलों में यह अधिक ायदेमंद नहीं है।

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